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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2632
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

अध्याय - 5

कुमारसंभवम्
(प्रथम सर्ग : श्लोक 1-25)

 

प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।

व्याख्या भाग

1. अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक मे महाकवि कालिदास हिमालय की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं

अन्वय - उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः पूर्वापरौं तोयनिधि वगह्म पृथिव्याः मानदण्ड इव स्थितः अस्ति।

व्याख्या - उत्तर दिशा में, देवस्वरूप, हिमालय नामक पर्वतों का स्वामी पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र के अन्दर तक फैला हुआ है, मानो भूमण्डल के मापदण्ड (को नापने) की भाँति अवस्थित है।

शब्दार्थ - उत्तरस्या दिशि = उत्तर दिशा, देवतात्मा = देवता के समान, नगाधिराजः = पर्वतों के स्वामी, तोयनिधि = समुद्र का विस्तार, वगाह्य = अन्दर तक, पृथिव्या इव मानदण्डः = पृथ्वी के नापने के समान।

टिप्पणी- दिशि - दिक् शब्द, सप्तमी विभक्ति एकवचन। अधिराज + राज् + टच्। वगाह्य - अब + गाह् + ल्यप्। 'मागुरि आचार्य के मत से 'अ' का लोप। मानदण्ड - मानस्य दण्डः इति मानदण्ड। मान - माड् + ल्युट्। स्थित - स्था + क्त। यहाँ पर इन्द्रवजा एवं उपेन्द्रवज्रा के योग से उपजाति छन्द बनता है।

2.  य सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरि दोहदक्षे।
भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम्॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज हिमालय पर्वत की विशेषता बताते हुए कहते हैं

अन्वय- सर्वशैला यं वत्स परिकल्प्य दोहदक्षे मेरौ स्थिते (सति) पृथूपदिष्टा धरित्रीम् भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च दुदुहुम्।

व्याख्या - जिसे (हिमालय को) संपूर्ण पर्वतों ने बछड़ा मान कर दोहदक्ष (दुहने में प्रवीण) मेरू के दुहने वाले होने पर पृथुराज के द्वारा बताई हुई पृथ्वी से देदीप्यमान रत्न और महान् (संजीविनी आदि) औषधियाँ दुहीं गयी।

शब्दार्थ - यं = जिस (हिमालय को). सर्वशैला = सम्पूर्ण पर्वतों ने, वत्सं मेरौ = बछड़ा मानकर, दोहदक्ष = दुहने में निपुण, रत्नानि = रत्नों, महौषधश्च = और औषधियाँ, दुदुहुर्धरित्रीम = दुही गयी।

टिप्पणी - परिकल्प्य = परि + कृप् + ल्यप्। 'कृपो से ल.' सूत्र से 'र' को 'ल' हो गया। दोग्धरि = दुह धातु से तृच् प्रत्यय सप्तमी एक वचन। भास्वन्ति = भाः अस्ति येषु तानि (भास्वन्ति) नपुंसकलिंग। भास्वत्, भास्वती, भास्वन्ति। धरित्रीम् = धृञ् + तृच् + डीप्।

3. अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिम न सौभाग्यविलोपि जातम्।
एको हि दोषो गुणासत्रिपाते निमज्जतीन्दोः किरणोष्विवाङ्॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत पद्य में महाकवि कालिदास ने स्पष्ट किया है कि गुणों के समुदाय में एक दोष भी छिप जाता है।

अन्वय - अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिमं सौभाग्यविलोपि न जातम्। हि एकः दोष गुण - सन्निपाते इन्द्रो. किरणेषु अडू इव निमज्जति।

व्याख्या - अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले जिसके (हिमालय के) सौन्दर्य को बर्फ (हिम) के द्वारा नष्ट नहीं किया गया, क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमा का कलडू उसकी किरणों की चमक में छिप जाता है।

शब्दार्थ - प्रभव = उत्पन्न करने वाला, सौभाग्य = सुन्दरता, गुणसन्निपाते = गुणों का समूह, निमज्ज = डूबना या छिपना, किरणोष्विव = किरणों के समान।

टिप्पणी - यहाँ 'उपेन्द्रवज्रा छन्द है। 'उपमा' अलंकार है। अनन्त = न अन्त यस्थ किरणोष्विवाडू = किरणेषु + इव + एव + अङ्क।

4. यश्चाप्सरोविभ्रममण्डनानां सम्पादयित्री शिखरैबिभर्ति।
बलाहकच्छेदविभक्तरागा - मकालसन्ध्यामिव धातुमत्ताम्॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास हिमालय पर्वत पर अप्सराओं के रहने का चित्रण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं -

अन्वय - च य. आप्सरोविभ्रममण्डनानाम् सपादयित्री बलाहकच्छेदविभक्तरागा अकालसन्ध्याम धातुमत्ताम् इव शिखरै बिभर्ति।

व्याख्या - जो (हिमालय) अप्सराओ के विलास के योग्य बनाने वाली और जिसकी रक्तिम आभा मेघखण्डों में प्रतिबिंबित है, ऐसी धातुओं को अकालसध्या के समान अपने शिखरों पर धारण करता है।

शब्दार्थ - अप्सरोविभ्रममण्डनानाम = अप्सराओं के विलास, संपादयित्री = देने योग्य, बलाहकच्छदे विभक्तरागा = रक्तिम आभा मेघमण्डो में चिन्हित है, अकालसंध्यामिव = अकाल संध्या के समान।

टिप्पणी - सम्पादियित्री = सम् + पद + णिच् + तृच + डीप्। विभक्त = वि + भजू + क्त। धातुमत्ता = धातु + मतुप् + तल्। बलाहकच्छेद विभक्तरागाम् = इस पद से पर्वतराज हिमालय की अधिक ऊँचाई व्यक्त होती है।

5. आमेखलं सञ्चरता घनानाम् छायामधः सानुगतां निषेव्य।
अद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते श्रृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धाः॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास हिमालय पर्वत पर ऋषि-मुनियों के आश्रय का चित्रण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं -

अन्वय - सिद्धा आमेखलं सञ्चरतां धनानाम अद्य सानुगता छाया निषेव्य वृष्टिभिः उद्वेजिताः (सन्त) यस्य (हिमाद्रे) आतपवन्ति श्रृङ्गाणि आश्रयन्ते।

व्याख्या - मेखला (उपत्यका) तक संचार करने वाले मेघों के नीचे शिखरों पर छाया का सेवन करके वृष्टि से कष्ट पाये हुये सिद्ध (तपस्वी) जिसके (हिमालय के) धाम वाले शिखरों का आश्रय लेते हैं।

शब्दार्थ - आमेखल = मेखला, सञ्चरता = संचार करने वाले, घनानाम = बादलों के, छायामध: = छाया का आश्रय, यस्यातपवन्ति = इन्हीं पर्वतों (शिखरों)।

टिप्पणी - संचरतो सम् + चर + शत। गतां = गम् + क्त। निषेध्य = नि + सेद् + ल्यप्। उद्वेजिता = उत् + वेज् + क्ता। वृष्टिः = वृष् + क्तिन्। आतपवन्ति + आ + तप् + मतुप् नपुंसकलिंग बहुवचन।

6. पदं तुषारस्नुतिधौतरक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वापि हतद्विपानाम्।
विन्दन्ति मार्ग नखरंधमुक्तैर्मुक्ताफलैः केसरिणां किराताः।।

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास ने हिमालय पर हाथियों एवं गजघाती सिहों की प्रचुरता का वर्णन किया है।

अन्वय- यस्मिन् 'किराता' हतद्विपाना केसरिणां तुषारस्रुतिधौतरक्तम् पदं अदृष्ट्वापि नखरधमुक्तै मुक्ताफले मार्ग विन्दन्ति।

व्याख्या - जिस पर्वत में किरात लोग बर्फ के प्रवाह से जिनका रक्त धुल गया है, ऐसे हाथियों को मारने वाले सिंहों के मार्ग को पंजो के चिह्न न दिखाई पड़ने पर भी नखों के छिद्रों से गिरे हुए मोतियों से जानते है।

शब्दार्थ - यस्मिन्न = जिस (पर्वत) किराता = किरात (जनजाति). तुषारस्त्रतिधौतरक्तम् = बर्फ के प्रवाह से धुला हुआ रक्त, मार्ग = रास्ते, नखरंध्रमुक्तैः = नाखूनों के चिन्ह, केसरिणा = सिहों के।

टिप्पणी - रक्तम् = रञ्ज् + क्त। दृष्टवा = दृश् + क्त्वा। द्विपाना = द्वि + पा + क प्रत्यय, षष्ठी बहुवचन। मुक्तै = मुच् + क्त।

इस श्लोक से यह व्यक्त होता है कि हिमालय प्रदेश मे मुक्ताधारी गजेन्द्र निवास करते हैं। सिंह जब गजेन्द्रों के मस्तक को फाड़ते हैं तब उनके नाखून में गजमुक्ता लग जाता है और जब वह चलते हैं तब नखरन्ध्र से निकल कर इतस्ततः बिखर जाते हैं। इन्हीं बिखरे हुए मोतियो के सहारे किरात लोग सिंहों का पता लगाते है।

7. न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र भूर्जत्वचः कुञ्जरविन्दुशोणाः।
व्रजन्ति विद्याधरसुन्दरीणां अनङ्गलेखक्रिययोपयोगम्॥

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत पर विचरण करने वाले हाथियों के मदजल एवं धातुओं का वर्णन करते हुए कहते है -

अन्वय - यत्र धातुरसेन न्यस्ताक्षराः कुञ्जरबिंदुशोणा: भर्जत्वचः विद्याधरसुन्दरीणां अनङ्गलेखक्रियायोपयोगं व्रजन्ति।

व्याख्या - यहाँ (जिस पर्वत पर ) धातुओं (सिदूरादि) के रस से जिनमें अक्षर लिखे गये है, और जो हाथियो के (मस्तक के) बिन्दुओ के समान रक्तवर्ण हैं ऐसे भोजपत्र विद्याधरों की स्त्रियों के लिए मदन- पत्रिका के काम में आते हैं।

शब्दार्थ - यत्र = जिस (पर्वत पर), धातुरसेन धातुओं (सिंदूरादि) के रसो, न्यस्ताक्षरा = अक्षर (वर्ण), कुञ्जरविन्दुशोणाः = हाथियों के (मस्तक के) बिन्दुओं, विद्याधरसुन्दरीणा = विद्याधरों की स्त्रियों के लिए।

टिप्पणी - न्यस्ता - नि + अस् + क्त। धातु धृ + तृच्, षष्ठी एकवचन। इस श्लोक से यह व्यक्त होता है कि दिव्याङ्गनाओं के बिहार के योग्य यह पर्वत है।

8. यः पूरयन्कीचकरन्ध्रभागान् दरीमुखोत्थेन समीरणेन।
उद्गास्यतामिच्छति किशराणां तानप्रदायित्वमिवोपगन्तुम्॥

सन्दर्भ-प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।
प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत पर उसकी गुफाओं में वायु की गूंजने वाली ध्वनि का चित्रण करते हुए कहते हैं -
अन्वय- य दरीमुखोत्थेन समीरणेन कीचकरन्ध्रभागान् पूरयन् उद्गास्यता किन्नराणां तानप्रदायित्व उपगन्तुम् इच्छति इव।
व्याख्या - जो हिमालय गुफारूपी मुख से उत्पन्न वायु द्वारा बाँसों (कीचकों) के छिद्रभागों को पूर्ण करता हुआ उच्चरवर से गाने वाले किन्नरों के स्वर में स्वर मिलाने की मानो इच्छा करता है।
शब्दार्थ - दरीमुखोत्थेन = गुफारूपी मुख, समीरणेन = वायु द्वारा, कीचकरन्ध्रभागान् = कीचकों के छिद्र के अग्रभाग, पूरयन = पूर्ण करता, उद्गास्यता = उच्चस्वर में, किन्नराणां = किन्नरों के लिए।
टिप्पणी - पूरयन्पूर् + शतृ। उत्थेन उत् + स्था + कः। समीरण सम् + ईर् + ल्युट्। उद्गास्य = उत् + गै + स्य, स्य को सत् संज्ञा विधान। प्रदायित्वम् = प्र + दा + णिज् आगम, इसके बाद त्व प्रत्यय। उपगन्तुम् उप + गम् + तुमुन्। इस श्लोक से ज्ञात होता है कि हिमालय में प्रकृति स्वयं संगीत का समारम्भ करती है। कवि कालिदास की संगीत पटुता का भी ज्ञान इसके द्वारा होता है।

9. कपोलकण्डूः करिभिर्विनेतुं विघटितानां सरलद्रुमाणाम्।
यत्र स्रुतक्षीरतया प्रसूतः सानूनि गन्धः सुरभीकरोति॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत के वृक्षों को हाथियों के रगड़ने से उत्पन्न हुई गंध का वर्णन करते हुए कहते हैं

अन्वय- यत्र करिभिः कपोलकण्डू विनेतुं विघटितानां सरलद्रुमाणां स्रुतक्षीरतया प्रसूतः गन्ध सानूनि सुरभीकरोति।

व्याख्या- जहाँ जिस पर्वत पर कपोलो की खुजली मिटाने के लिए हाथियों से रगड़े गये सरल (साखू) वृक्षों के टपके हुए दूध से उत्पन्न हुई गंध शिखरों को सुगंधित करती है।

शब्दार्थ - कपोलकण्डू = गालो की खुजली, विधटिट्तानां = मिटाने (शान्त करने) के लिए, प्रसूत गन्ध = उत्पन्न हुई गन्ध, सुरभिकरोति = सुगधित करती है।

टिप्पणी - विनेतुं वि + नी + तुमुन्। विघट्टितानाम् = विघट्ट् + क् + तान् + म्। स्रुतः = सु + क्त प्रसूत प्र + पू+ क्त इस श्लोक से स्पष्ट है कि हिमालय में मदोत्कट हाथियों को बहुलता है। अतः कह सकते है कि पर्वतों की सूक्ष्म काल्पनिक दृश्य का चित्रण किया गया है।

10. वनेचराणां वनितासखानां दरीगृहोत्संगनिषक्तभासः।
भवन्ति यत्रोषधयो रजन्याम् अतैलपूराः सुरतप्रदीपाः।।

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत के रात्रिकाल में कुछ विशिष्ट औषधियाँ जो कि स्वतः ही जलती रहती हैं, का वर्णन करते हुए कहते हैं

अन्वय - यत्र रजन्या दरीगृहोत्संगनिषक्तभासः ओषधय वनितासखाना वनेचरणां अतैलपूरा सुरतप्रदीपा भवन्ति।

व्याख्या - जिस हिमालय में रात्रि के समय स्त्रियों के साथ रमण करते हुए वनचरों के लिए औषधियों, जिनका प्रकाश गुफा रूपी गृहों में व्याप्त है, सुरत काल में तैलरहित दीपकों का काम करती है।

शब्दार्थ - यत्र रजन्या = जहाँ रात्रि के समय, गृहोत्सगनि: = गृहणी (अपनी स्त्री), ओषधयः = औषधियाँ, वनेचरणा = वनचरों के लिए, अतैलपूराः = तेल से रहित, दीपाः = दीपकों।

टिप्पणी- उत्सङ्ग = उत् + सम् + गम् + इ + प्रत्यय। निषक्त = नि उपसर्गपूर्वक सञ्जु धातु से 'क्त' प्रत्यय (न का लोप)। निषक्तभासः औषध्यः = जंगलों में बहुत-सी औषधियाँ दीपक की भाँति जलती रहती है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि सूर्य अपना तेज अग्नि और औषधियों मे रख कर अस्त हो जाते है। इस छन्द में परिणाम अलकार और 'विभावना अलंकार की संसृष्टि है।

11. उद्वेजयत्यंगुलिपार्ष्णिभागान् मार्गे शिलीभूतहिमेऽपि यत्र।
न दुर्वहश्रोणिपयोधरार्ता भिन्दन्ति मन्दां गतिमश्वमुख्यः॥

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत पर जमी हुई बर्फ में कठिनाई से चलने, का वर्णन करते हुए कहते हैं

अन्वय - यत्र शिलीभूतहिमे अंगुलिपार्ष्णिभागान् उद्वेजति अपि मार्गे दुर्वहश्रोणिपयोधरार्ता. अश्वमुख्य मदां गति न भिन्दन्ति।

व्याख्या - जिस हिमालय पर्वत पर किन्नर स्त्रियाँ, पत्थर की भाँति कठोर जमी हुई बर्फ से युक्त (अतएव) पैर की उँगलियों और ऍडी भाग को पीड़ित करते हुए मार्ग में भी अपने नितम्ब और स्तनभार को बडी कठिनता से वहन करती हुई मन्द गति को नहीं त्यागतीं।

शब्दार्थ - शिलीभूतहिमे = बर्फ की शिलाओं, अगुलिपार्ष्णिभागान् = अंगुलियों के अग्र भागों को उद्वेजति = कठिन मार्ग, मदा गति न भिन्दन्ति = मन्दगति को नहीं त्यागती।

टिप्पणी- उद्वेजयति = उत् उपसर्ग पूर्वक 'वेज़' धातु से शतृ प्रत्यय, सप्तमी विभक्ति एक वचन। शिलीभूत = शिला + च्चि (आ को ई) भू + क्त। शिला न होते हुए भी जमकर बर्फ पत्थर की शिला की भाँति है। यत्र = जहाँ, जिस हिमालय पर आर्ताः = अङ् पूर्वक ऋच्छ धातु से क्त प्रत्यय।

12. दिवाकराद्रक्षति यो गृहासु लीनं दीवा भीतमिवान्धकारम्।
घुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास ने पर्वतराज हिमालय के शरणागत प्रेम का अत्यधिक मनोहर चित्रण किया है।

अन्वय - य दिवाभीतम् इव गुहासु लीन अन्धकारम् दिवाकरात् रक्षति उच्चैः शिरसां प्रपन्ने क्षुद्रेऽपि सति इव नून ममत्वम् (भवति)।

व्याख्या - जो हिमालय दिन में मानो डरकर (अपनी) गुफाओं में छिपे हुए अन्धकार को सूर्य से उष्णता है, तो वह उचित ही करता है, क्योंकि ऊँचे मस्तक वाले (महान् लोग) मरणागत क्षुद्र जन्तुओं पर भी निश्चित रूप से ममता (प्रेम) ही करते हैं।

शब्दार्थ - या दिवाभीतम् = जो दिन में डर कर, गुहासु = गुफाओं में, लीन = छिपा हुआ, अन्धकारम् = अन्धकार को, दिवाकरात् रक्षति = सूर्य से रक्षा करता है, उच्चैः शिरसा = ऊँचे सिर वाले।

टिप्पणी- दिवाकरम् दिवा दिन करोति इति दिवाकरः तस्मात्। दिवाभीत सप्तमी तत्पुरुष समास। प्रपन्ने प्र उपसर्ग पूर्वक 'पद' धातु से 'क्त' प्रत्यय सप्तमी एक में अर्थान्तरन्याय अलंकार है।

13. लांगूलविक्षेपविसर्पिशोमै रितस्ततश्चन्द्रमरीचिगौरैः।
यास्याडर्थयुक्तं गिरिराजशब्द कुर्वन्ति बालव्यजनैश्चमर्यः॥

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत के गिरिराज अर्थात् पर्वतों के राजा 'नाम' की सार्थकता सिद्ध करते हुए कहते हैं -

अन्वय - चमर्य इतस्तत लांगूलविक्षेपतिसर्पिशोमै चन्द्रमरीचिगौरै बालव्यजनै यस्य गिरिराजशब्द अर्थयुक्त कुर्वन्ति।

व्याख्या - चमरी (सुराद्वाये) अपनी पूँछों के इधर-उधर हिलाने से जिनकी शोभा फैल रही है, और जो चन्द्रकिरणों के समान धुंध है. ऐसे चामरों मे जिस हिमालय का गिरिराज शब्द (नाम) सार्थक करती है।

शब्दार्थ - चमर्य = चामर (पंखों के समान), इतस्ततः = इधर-उधर, चन्द्रमरीचिंगारैः =  चन्द्रकिरणों के समान घुंधली, अस्य गिरिराजशब्द = गिरिराज ऐसे नाम अर्थयुक्त सार्थक।

टिप्पणी - विक्षेप = वि + क्षिप + अच्। विसर्पिवि + सृप् + णिनि। चन्द्रमरीचिगौरैः = चन्द्रस्य मरीचयः इति चन्द्रमरीचय (ष तत्पुरुष) चन्द्रमरीचि गौरैः।

14. यत्रांशुकाक्षेपविलज्जितानां यदृच्छया किंपुरुषाङ्गनानाम्।
दरीगृहद्वारविलम्बिविम्बास्तिरस्करिण्यो जलदा भवन्ति॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग -प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत पर बादलों की छठा का चित्रण प्रस्तुत करते हुए कहते है

अन्वय- यत्र अशुकाक्षेपविलज्जिताना किंपुरुषाङ्गनानाम् यदृच्छया दरीगृहद्वारविलम्बिवा. जलदा: तिरस्करिण्यः भवन्ति।

व्याख्या - जिस (हिमालय पर्वत) पर वस्त्रों के हरण कर लेने के कारण लज्जायुक्त किन्नर स्त्रियो के लिए भाग्यवगात् गुफा रूपी गृह के द्वार पर बादल लम्बे मण्डलाकार लटक कर जबनिका (परदा) बन जाते हैं। (अर्थात् गुफा द्वार पर बादलों के छा जाने पर उनकी लज्जा डॅक जाती है।)

शब्दार्थ - अशुकाक्षेपविलज्जितानां = हरित वस्त्रों के कारण लज्जित, गृहद्वारविलम्बिवा = गृह के द्वार पर लम्बा, जलदा = बादल, तिरस्करिण्यः = तिरस्कृत होने से।

टिप्पणी- अक्षेप आड + क्षिर् + अच्। विलज्जितानां वि + लज्ज् ि+ क्त् षष्ठ बहुवचन। किंपुस्य = कुलिसताः पुरुषः। विलब्बि = वि + गम् + बिबि। तिरस्करिण्यः = तिरम् + कृ + गिनि + डीप्।

15. भागीरथीनिर्झरसीकराणां वोढ़ा मुहुः कम्पितदेवदारूः।
यद्वायुरन्विष्टमृगैः किरातैरासेव्यते भिन्नशिखण्डिवर्हः॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास हिमालय पर्वत से निकलने वाली गंगा नदी का प्रकृति वर्णन करते हुए कहते हैं -

अन्वय- भागीरथीनिर्झरसीकराणां वोढा मुहुः कम्पितदेवदारु भिन्नशिखण्डिवर्ह: यद्वायु अन्विष्टमृगे किरातै आसेव्यते।

व्याख्या - जिस हिमालय के भागीरथी के प्रवाह के कणों को जाने वाले, बार-बार देवदारुबधों को रुद्ययमान करने वाले और मधुरपिच्छों को (वेग से) अलग-अलग करने वाले वायु का मृगों को ढूँढने वाले किरात सेवन करते हैं।

शब्दार्थ - भागीरथीनिर्झरसीकराणा = भागीरथी (गंगा) के प्रवाह से कणों को, कम्पितदेवदारू = कम्पित होने वाले देवदार के वृक्ष, अन्विष्टमृगैः = मृगों को ढूँढने वाले।

टिप्पणी - भागीरथी = भगीरथ + अणु + डीप्। वोढ। = वह् + तृच्। कम्पित = कम्प् + क्त्। भिन्न = भिडिर + क्त्। शिखण्डिन् = शिखा अस्ति अस्य इति, शिखा + अम्, ड, शिखण्ड + इनि।

16. सप्तर्षिहस्तावचितावशेषाण्यधो विवस्वान्परिवर्तमानः।
पद्मानि यस्याग्रसरोरुहाणि प्रबोधयत्यूर्ध्वमुर्खर्मयूखैः॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत के ऊपर सप्तऋषियों के होने तथा उनका भ्रमण आदि करने का प्राकृतिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं -

अन्वय - सप्तर्षिहस्तावचितावशेषाणि यस्य अग्रसरोरूहाणि पद्मानि अषः परिवर्तमाना विवस्वान् ऊर्ध्वमुखैः मयूखैः प्रबोधयति।

व्याख्या - जिस (हिमालय) के ऊपर के सरोवरों में उत्पन्न और सप्तर्षियों के हाथों से चुनने पर शेष बचे हुए कमलों को नीचे भ्रमण करने वाला सूर्य अपनी ऊर्ध्वमुखी किरणों से विकसित करता है।

शब्दार्थ - सप्तर्षिहस्तावचितावशेषाणि = सप्तर्षियों के हाथों से चुनने के बाद शेष बचे हुए, यस्य अग्रसरोरूहाणि = इस सरोवर के ऊपर, पद्मानि = कमलो, प्रबोधयति = विकसित करता है।

टिप्पणी - अवचित = अव + चि + क्त। अवशेषाणि = अध + शिष् + अच्। विवस्वान् वस् + मतुप्। परिवर्तमानः परि + वृत् + शानच्, मुक का आगम। सरोरुह = सरसि रोहन्ति इति, रूह + क प्रत्यय। प्रबोध्यति = प्र + बुध + णिच, वर्तमान काल (लट्)।

17. यज्ञांगयोनित्वमवेक्ष्य यस्य सारं धरित्रीधरणक्षमं च।
प्रजापतिः कल्पितयज्ञभागं शैलाधिपत्यं स्वयमन्वतिष्ठत्॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय पर्वत को अन्य पर्वतों का स्वामी होने का वर्णन करते हुए कहते हैं -

अन्वय - यस्य यज्ञाङ्गयोनित्वं धरित्रीधरणक्षम सारं च अवेक्ष्य प्रजापतिः स्वयमेव कल्पितयज्ञभाग शैलाधिपत्यं अन्वतिष्ठत्।

व्याख्या - जिस (हिमालय) का यज्ञांग (सोमलतादि) पैदा करने का सामर्थ्य और पृथ्वी की धारण करने के योग्य बल देखकर प्रजापति (विधाता) ने, स्वयमेव जिसमें यज्ञ का भाग कल्पित है ऐसा शैलाधिपत्य (पर्वतों का अधिपत्य - स्वामित्व) दिया।

शब्दार्थ - यस्य यज्ञाङ्गयोनित्व = जिस (हिमालय) का यज्ञांग को, धरित्रीधरणक्षमं = पृथ्वी की धारण करने में सक्षम, प्रजापतिः = ब्रह्मा (विधाता), शैलाधिपत्यं = पर्वतों का स्वामित्व।

टिप्पणी - यज्ञ = यज् + नञ् प्रत्यय। योनित्वं = योने भाव योनित्वम्, योनि + त्वम्। अवेक्ष्य = अव + ईश् + ल्यप् धरित्री = धृ + तृच् + डीप्। धरण = धृ + ल्युङ्। प्रजा = प्रकर्षण जायन्ते इति,  पा + क्तिन, कल्पित जनि (प्रादुर्भावे) + ड् प्रत्यय 'उपसर्गे च संज्ञायाम। पति = पा + क्तिन, कल्पित = कृप् + क्त, 'कृपो रो मः। अधिपत्यम् = अधि + पति + म + क्।

18.  स मानसी मेरूसखः पितॄणां कन्यां कुलस्य स्थितये स्थितिज्ञः।
       मेनां मुनीनामपि माननीयामात्मानुरूपां विधिनोपयेमे॥

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास जी, हिमालय पर्वत का वंश वृद्धि हेतु मेना से विधिवत विवाह का वर्णन करते हुए कहते हैं।

अन्वय - मेरुसख स्थितिज्ञः सः मुनीनाम् अपि माननीयानाम् आत्मानुरूपा पितॄणां मानसी कन्या मेना कुलस्य स्थितये विधिना उपयेमे।

व्याख्या - सुमेरु पर्वत के मित्र और मर्यादा के जानने वाले (उस) हिमालय ने पितरों के मन संकल्प से उत्पन्न हुई, मुनियों के द्वारा भी सम्मान योग्य, अपने (कुल शील के) अनुरूप मेना नाम की कन्या से वंश प्रतिष्ठा के लिए विधिवत विवाह किया।

शब्दार्थ - मेरूसखः = सुमेरु पर्वत के सखा अर्थात् हिमालय, मुनीनाम् अपि = मुनियों द्वारा भी, माननीयनाम् सम्मानित, पितॄणां = पितरों के, आत्मानुरूपा = अपने अनुरूप (मेना)।

टिप्पणी - मानसीं = मनसः इय तां, अण प्रत्यय तथा डीप्। सखः = सखिन् + टच्। स्थितये = स्था + क्तिन्। माननीयाम् = मान् + अनीयर्।

19. कालक्रमेणाथ तयोः प्रवृत्ते स्वरूपयोग्ये सुरतप्रसंगे।
मनोरमं यौवनमुद्वहन्त्या गर्भोऽभवद्भूधरराजपत्न्याः॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, हिमालय की पत्नी मेनका के गर्भधारण करने का वर्णन करते हुए कहते हैं -

अन्वय- अथ कालक्रमेण तयोः स्वरूपयोग्ये सुरतप्रसङ्गे प्रवृत्ते (सति) मनोरमं यौवनम् उद्वहन्त्याः भुधरराज - पत्नया गर्भ अभवत्।

व्याख्या - इसके अनन्तर कालक्रम से उन (मेना और हिमालय) का स्वरूप के योग्य रति संयोग होने पर मनोरम यौवन धारण करने वाली, पर्वतों के राजा (हिमालय) की स्त्री मेनका गर्भवती हुई।

शब्दार्थ - कालक्रमेणाथ = कालक्रम से, तयो = उनका (मेनका और हिमालय), स्वरूपयोग्ये = स्वरूप के योग्य, मनोरम यौवनम् = मनोरम यौवन को धारण करने वाली, गर्भ अभवत् = गर्भवती।

टिप्पणी - प्रवृत्ते = प्र + वृत् + क्त। योग्ये = युज् + ण्यत् (ऋहलोण्यत्) प्रसंगे प्र + सम् + गम् + S प्रत्यय ( भावे)। मनोरमम् = मनः रमयति इति, मनस् + रम् + अच्। यौवनम् = यूनः भाव इति, अण् प्रत्यय (भावे)। मनोरमम् = मनः रमयति इति। उद्वहन्त्या = उत् + वह + शतृ (नुम डीप)। भूधर = भुवंधरति इति, भू + धृ + अच्।

20. असूत सा नागवधूपभोयं मैनाकमंभोनिधिवद्धसख्यम्।
      क्रुद्धेऽपि पक्षच्छिदि वृत्रशत्रौ अवेदनाझं कुलिशक्षतानाम्।।

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास जी ने मैनाक पर्वत की उत्पत्ति का अति सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करते हुए कहा है-

अन्वय - सा नागवधूपभोग्यं अभोनिधिबद्धसख्यम् पक्षच्छिदि वृत्रशत्रौ क्रुद्धेऽपि कुलिशक्षतानां अवेदनाज्ञं मैनाक असूत।

व्याख्या - उस (मेना ने) नागकन्याओं से विवाह करने वाले, सागर से सख्य (मैत्री, दोस्ती) जोड़ने वाले और पक्षों का छेदन करने वाले वृत्रशत्रु (इंद्र) के क्रुद्ध होने पर भी वज्र के प्रहारों की वेदना को न जानने वाले मैनाक को जन्म दिया।

शब्दार्थ - नागवधूपभोग्य = नाग कन्याओं का भोग करने वाले, अमोनिधिबद्धसख्यम् = सागर से मित्रता करने वाले, पक्षच्छिदि = पक्षों का छेदन करने वाले, अवेदनाज्ञं = वेदना न जानने वाले।

टिप्पणी - उपभोग्यम = उप + भुज् + ण्यत् ('चजो कु घिण्यतो' द्वारा कुत्व हुआ)। मैनाक = मेनकाया: अपत्य पुमान्, अण्। बद्ध = बन्ध् + क्त (न का लोप)। क्रुद्ध = क्रुध् + क्त (कर्तरि)। पक्षच्छिदि = पक्ष छिन्दन्ति इति, छिदिर। क्षत = क्षण + क्त्।

21. अथावमानेन पितुः प्रयुक्ता दक्षस्य कन्या भवपूर्वपत्नी।
      सती सती योगविसृष्टदेहा तां जन्मने शैलवधूं प्रपेदे॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में पार्वती की उत्पत्ति के पूर्व की अवस्था का वर्णन किया गया है

अन्वय - अथ दक्षस्य कन्या सती भवपूर्व पत्नी सती पितु आवमानेन प्रयुक्ता योगविसृष्टेहा (सती) जन्मने ताम शैलवधूं प्रपेदे।

व्याख्या - इसके अनन्तर (मैनाक पर्वत के जन्म के पश्चात्) दक्ष की कन्या महादेव की पूर्व जन्म की स्त्री, पतिव्रता पिता के अनादर से प्रेरित होकर योग से शरीर त्यागने वाली सती, पुनर्जन्म धारण करने के लिए उस शैलवधू (मेना) को प्राप्त हुई। अर्थात् मेना की कुक्षि से पैदा हुई थी।

शब्दार्थ - दक्षस्य कन्या = दक्ष की कन्या, भवपूर्व पत्नी सती = पूर्व जन्म की पत्नी सती, आवमानेन = अनादर से क्षुब्ध (दुःखी), योगाविसृष्टेहा = योग से शरीर का त्याग करने वाली।

टिप्पणी - अवमान = अवमानते इति अव + मान् + अच्। प्रयुक्ता प्र + युज् + क्त। सतो - अस् + शतृ। विसृष्ट = वि + सृज् + क्त। योग = युज + धञ्।

22. सा भूधराणामधिपेन तस्यां समाधिमत्यामुदपादि भव्या।
      सम्यक् प्रयोगदपरिक्षतायां नीताविवोत्साहगुणेन संपत्॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास जी, भगवती पार्वती की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहते हैं -

अन्वय - भव्या सा भूधराणाम् अधिपेन समाधिमत्याम् तस्याम् सम्यक प्रयोगात अपरिक्षतायाम् नीतौ उत्साह गुणेन सम्पत् इव उपपादि।

व्याख्या - वह कल्याणी (सती) पर्वतों के राजा (हिमालय) से नीति में उत्साह गुण द्वारा संपत्ति के समान, उस नियम और सदाचरण (सुसंस्कृत) के कारण आचरण निष्ठ वाली (मेना) से उत्पन्न की गई।

शब्दार्थ - भव्या सा = वह कल्याणी, भूधराणाम अधिपेन = पर्वतों के राजा से, नी तौ उत्साह = नीति में उत्साह, गुणेन = गुणों द्वारा, सम्पत् इव = सम्पत्ति के समान।

टिप्पणी - भूधराणाम् = भू + घृ + अच्। अधिप = अधि + पा + क। समाधिमत्याम् = सम् + आ + घा + किं - मतुप् प्रत्यय। स्त्रीलिङ्ग डीप, सप्तमी एक वचन भव्या = भू + यत् भव्यम्, भव्य + अच्. स्त्रीलिंग। अपरिक्षतायाम् = परि + क्षण् + क्त (नञ् तत्पुरुष)।

23. प्रसन्नदिक्पांसुविविक्तवातं शङ्खस्वनानन्तरपुष्पवृष्टिः।
      शरीरिणां स्थावरजङ्गमानां सुखाय तज्जन्मदिनं बभूव॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज, कालिदास जी भागवती पार्वती के जन्मदिन का वर्णन करते हुए कहते हैं -

अन्वय - प्रसन्नदिक पाशुविविक्तत्वातम् शङ्खस्वनानन्तरपुष्पवृष्टि तज्जन्मदिन स्थावरजङ्गमानां शरीरिणा सुखाय बभूव।

व्याख्या - निर्मल दिशा वाला धूल रहित वायु वाला और शखनाद के पश्चात् पुष्पवृष्टिवाला उस (सती) का जन्मदिन स्थावर और जंगल प्राणियों के लिए सुखदायी हुआ।

शब्दार्थ- पाशुविविक्तवातम् = धूल रहित वायु वाला, शङ्खस्वनान्तर = शंखनाद के पश्चात्, पुष्पवृष्टिः = पुष्पवृष्टि वाला तज्जन्मदिन उसका जन्मदिन, शरीरिणा = प्राणियों के लिए।

टिप्पणी - प्रसन्न = प्र + सद् + क्त। विवक्त = वि + विज् (ओविजी) + क्त। वृष्टि - वृष + क्तिन्। शरीरिणा = शरीर + इनि (अत इनठनौ)। स्थावर = स्था + वरच्। जगमा = गच्छन्तीति जंगमाः (उणदि द्वारा सिद्ध)।

24. तया दुहित्रा सुतरां सवित्री स्फुरत्प्रभामंडलया चकासे।
      विदुरभूमिर्नवमेघशब्दादुद्भिन्नया रत्नशलाकयेव।।

सन्दर्भ -प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक मे कविराज कालिदास, पार्वती की नैसर्गिक शरीर की शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं

अन्वय - स्फुरत्प्रभामण्डलया तया दुहित्रा सावित्री विदुर भूमि नवमेघशब्दात् उद्भिन्नया रत्नशलाकाया इव सुतरां चकासे।

व्याख्या - माता (मेना) उस देदीप्यमान प्रभामण्डल वाली कन्या से नवीन मेघ के शब्द से उत्पन्न हुई रत्नशालोका से पर्वत की भूमि के समान अत्यन्त शोभित हुई।

शब्दार्थ - तया स्फुरत्प्रभामण्डलया = उस देदीप्यमान प्रभामण्डल वाली, दुहित्रा = कन्या (पुत्री), नवमेघशब्दात् उद्भिन्नया = नवीन मेघ के शब्द से उत्पन्न हुई, रत्नशलाकयेव = रत्नशलाका के समान।

टिप्पणी - सावित्री = सू + तृच् स्वरतिसूतिसूयतिधूञूदितो 'वा' इस सूत्र से 'इट' का आगम, पुनः गुण तथा ऋन्नयेभ्यः डीप् से डीप प्रत्यय। प्रभा = प्र + भी + क प्रत्यय (आतश्चोपसर्गे कः)। उदिभन्नया = उत् + भिदिर + क्त।

करते
-

25. दिने दिने सा परिवर्धमाना लब्धोदया चान्द्रमसीव लेखा।
      पुपोष लावण्यमयान्विशेषाञ्योत्स्नान्तराणीव कलान्तराणि॥

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक कविकुलगुरु शिरोमणि महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। यह महाकाव्य सत्रह सर्गो में निबद्ध तथा लघुत्रयी (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् और मेघदूतम्) के अन्तर्गत आता है। यह महाकाव्य कुमार कार्तिकेय के जन्म की घटना पर आधारित संस्कृत महाकाव्य परम्परा का अद्वितीय महाकाव्य है। इस सर्ग में महाकवि की उत्कृष्ट काव्यकला का प्रदर्शन है।
प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में कविराज कालिदास, पार्वती के अंगों की वृद्धि का अतीव मनोज्ञ वर्णन हुए पार्वती के उत्तरोत्तर लावण्य का वर्णन करते हुए कहते हैं -
अन्वय- लब्धोदया दिने दिने परिवर्धमाना सा चान्द्रमसी लेखा इव लावण्यमयान् ज्योत्स्नान्तराणि कलान्तराणि इव पुपोष।
व्याख्या - उत्पन्न होकर दिन-प्रतिदिन बढती हुई उस कन्या (पार्वती) ने चन्द्रमा की किरणों द्वारा ज्योत्स्ना की कला की भाँति अपनी मनोहर कान्ति से अंग-अवयवों में नूतन लावण्य को धारण किया (अत्यधिक सुन्दरता को धारण किया)।
शब्दार्थ - लब्धोदया = उत्पन्न होकर, परिवर्धमाना = बढ़ती हुई, चान्द्रमसीव = चन्द्रमा की किरणों के समान, लावण्यमयान् = मनोहर कान्ति, ज्योत्स्नान्तराणि = ज्योत्स्ना की कला की भाँति।
टिप्पणी - परिवर्धमान = परि + वृध + शानच्। लब्ध = लम् + क्त। चान्द्रमसी = चन्द्रमरा इय, चन्द्रमस् + अण् (तस्येदं)। लावण्यमान् = लवणस्य भावः इति लावण्यम् लवण + ष्यञ् (गुण कर्मणि) मयट। जैसे
मोती में कान्ति की छाया (तरलता, विच्छिति) रहती है उसी प्रकार शरीर की कान्ति को लावण्य कहते हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल विषयों का अन्तः सम्बन्ध बताते हुए, इसके क्रमिक विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- भारत का सभ्यता सम्बन्धी एक लम्बा इतिहास रहा है, इस सन्दर्भ में विज्ञान, गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण योगदानों पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- निम्नलिखित आचार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये - 1. कौटिल्य (चाणक्य), 2. आर्यभट्ट, 3. वाराहमिहिर, 4. ब्रह्मगुप्त, 5. कालिदास, 6. धन्वन्तरि, 7. भाष्कराचार्य।
  5. प्रश्न- ज्योतिष तथा वास्तु शास्त्र का संक्षिप्त परिचय देते हुए दोनों शास्त्रों के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- 'योग' के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए, योग सम्बन्धी प्राचीन परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- 'आयुर्वेद' पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  8. प्रश्न- कौटिलीय अर्थशास्त्र लोक-व्यवहार, राजनीति तथा दण्ड-विधान सम्बन्धी ज्ञान का व्यावहारिक चित्रण है, स्पष्ट कीजिए।
  9. प्रश्न- प्राचीन भारतीय संगीत के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  10. प्रश्न- आस्तिक एवं नास्तिक भारतीय दर्शनों के नाम लिखिये।
  11. प्रश्न- भारतीय षड् दर्शनों के नाम व उनके प्रवर्तक आचार्यों के नाम लिखिये।
  12. प्रश्न- मानचित्र कला के विकास में योगदान देने वाले प्राचीन भूगोलवेत्ताओं के नाम बताइये।
  13. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?
  14. प्रश्न- ऋतुओं का सर्वप्रथम ज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है?
  15. प्रश्न- पौराणिक युग में भारतीय विद्वान ने विश्व को सात द्वीपों में विभाजित किया था, जिनका वास्तविक स्थान क्या है?
  16. प्रश्न- न्यूटन से कई शताब्दी पूर्व किसने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त बताया?
  17. प्रश्न- प्राचीन भारतीय गणितज्ञ कौन हैं, जिसने रेखागणित सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया?
  18. प्रश्न- गणित के त्रिकोणमिति (Trigonometry) के सिद्धान्त सूत्र को प्रतिपादित करने वाले प्रथम गणितज्ञ का नाम बताइये।
  19. प्रश्न- 'गणित सार संग्रह' के लेखक कौन हैं?
  20. प्रश्न- 'गणित कौमुदी' तथा 'बीजगणित वातांश' ग्रन्थों के लेखक कौन हैं?
  21. प्रश्न- 'ज्योतिष के स्वरूप का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- वास्तुशास्त्र का ज्योतिष से क्या संबंध है?
  23. प्रश्न- त्रिस्कन्ध' किसे कहा जाता है?
  24. प्रश्न- 'योगदर्शन' के प्रणेता कौन हैं? योगदर्शन के आधार ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  25. प्रश्न- क्रियायोग' किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- 'अष्टाङ्ग योग' क्या है? संक्षेप में बताइये।
  27. प्रश्न- 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  28. प्रश्न- आयुर्वेद का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  29. प्रश्न- आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों के नाम बताइये।
  30. प्रश्न- 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' का सामान्य परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- काव्य क्या है? अर्थात् काव्य की परिभाषा लिखिये।
  32. प्रश्न- काव्य का ऐतिहासिक परिचय दीजिए।
  33. प्रश्न- संस्कृत व्याकरण का इतिहास क्या है?
  34. प्रश्न- संस्कृत शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? एवं संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ और उनके रचनाकारों के नाम बताइये।
  35. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  36. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  37. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  38. प्रश्न- कालिदास से पूर्वकाल में संस्कृत काव्य के विकास पर लेख लिखिए।
  39. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्यगत विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- महाकवि कालिदास के पश्चात् होने वाले संस्कृत काव्य के विकास की विवेचना कीजिए।
  41. प्रश्न- महर्षि वाल्मीकि का संक्षिप्त परिचय देते हुए यह भी बताइये कि उन्होंने रामायण की रचना कब की थी?
  42. प्रश्न- क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि माघ में उपमा का सौन्दर्य, अर्थगौरव का वैशिष्ट्य तथा पदलालित्य का चमत्कार विद्यमान है?
  43. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डालते हुए, उनकी कृतियों के नाम बताइये।
  44. प्रश्न- आचार्य पाणिनि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  45. प्रश्न- आचार्य पाणिनि ने व्याकरण को किस प्रकार तथा क्यों व्यवस्थित किया?
  46. प्रश्न- आचार्य कात्यायन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  47. प्रश्न- आचार्य पतञ्जलि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  48. प्रश्न- आदिकवि महर्षि बाल्मीकि विरचित आदि काव्य रामायण का परिचय दीजिए।
  49. प्रश्न- श्री हर्ष की अलंकार छन्द योजना का निरूपण कर नैषधं विद्ध दोषधम् की समीक्षा कीजिए।
  50. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत का परिचय दीजिए।
  51. प्रश्न- महाभारत के रचयिता का संक्षिप्त परिचय देकर रचनाकाल बतलाइये।
  52. प्रश्न- महाकवि भारवि के व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- महाकवि हर्ष का परिचय लिखिए।
  54. प्रश्न- महाकवि भारवि की भाषा शैली अलंकार एवं छन्दों योजना पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- 'भारवेर्थगौरवम्' की समीक्षा कीजिए।
  56. प्रश्न- रामायण के रचयिता कौन थे तथा उन्होंने इसकी रचना क्यों की?
  57. प्रश्न- रामायण का मुख्य रस क्या है?
  58. प्रश्न- वाल्मीकि रामायण में कितने काण्ड हैं? प्रत्येक काण्ड का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  59. प्रश्न- "रामायण एक आर्दश काव्य है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  60. प्रश्न- क्या महाभारत काव्य है?
  61. प्रश्न- महाभारत का मुख्य रस क्या है?
  62. प्रश्न- क्या महाभारत विश्वसाहित्य का विशालतम ग्रन्थ है?
  63. प्रश्न- 'वृहत्त्रयी' से आप क्या समझते हैं?
  64. प्रश्न- भारवि का 'आतपत्र भारवि' नाम क्यों पड़ा?
  65. प्रश्न- 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' तथा 'आर्जवं कुटिलेषु न नीति:' भारवि के इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  66. प्रश्न- 'महाकवि माघ चित्रकाव्य लिखने में सिद्धहस्त थे' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  67. प्रश्न- 'महाकवि माघ भक्तकवि है' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  68. प्रश्न- श्री हर्ष कौन थे?
  69. प्रश्न- श्री हर्ष की रचनाओं का परिचय दीजिए।
  70. प्रश्न- 'श्री हर्ष कवि से बढ़कर दार्शनिक थे।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  71. प्रश्न- श्री हर्ष की 'परिहास-प्रियता' का एक उदाहरण दीजिये।
  72. प्रश्न- नैषध महाकाव्य में प्रमुख रस क्या है?
  73. प्रश्न- "श्री हर्ष वैदर्भी रीति के कवि हैं" इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  74. प्रश्न- 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' श्री हर्ष ने इस कथन का समर्थन किया है। उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  75. प्रश्न- 'नैषध विद्वदौषधम्' यह कथन किससे सम्बध्य है तथा इस कथन की समीक्षा कीजिए।
  76. प्रश्न- 'त्रिमुनि' किसे कहते हैं? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  77. प्रश्न- महाकवि भारवि का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी काव्य प्रतिभा का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- भारवि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  79. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग का संक्षिप्त कथानक प्रस्तुत कीजिए।
  80. प्रश्न- 'भारवेरर्थगौरवम्' पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
  81. प्रश्न- भारवि के महाकाव्य का नामोल्लेख करते हुए उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की कथावस्तु एवं चरित्र-चित्रण पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की रस योजना पर प्रकाश डालिए।
  84. प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
  85. प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य-कला की समीक्षा कीजिए।
  86. प्रश्न- 'वरं विरोधोऽपि समं महात्माभिः' सूक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
  87. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
  88. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  90. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  91. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि कालिदास संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि हैं।
  92. प्रश्न- उपमा अलंकार के लिए कौन सा कवि प्रसिद्ध है।
  93. प्रश्न- अपनी पाठ्य-पुस्तक में विद्यमान 'कुमारसम्भव' का कथासार प्रस्तुत कीजिए।
  94. प्रश्न- कालिदास की भाषा की समीक्षा कीजिए।
  95. प्रश्न- कालिदास की रसयोजना पर प्रकाश डालिए।
  96. प्रश्न- कालिदास की सौन्दर्य योजना पर प्रकाश डालिए।
  97. प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य' की समीक्षा कीजिए।
  98. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
  99. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
  100. प्रश्न- 'नीतिशतक' में लोकव्यवहार की शिक्षा किस प्रकार दी गयी है? लिखिए।
  101. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की कृतियों पर प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- भर्तृहरि ने कितने शतकों की रचना की? उनका वर्ण्य विषय क्या है?
  103. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की भाषा शैली पर प्रकाश डालिए।
  104. प्रश्न- नीतिशतक का मूल्यांकन कीजिए।
  105. प्रश्न- धीर पुरुष एवं छुद्र पुरुष के लिए भर्तृहरि ने किन उपमाओं का प्रयोग किया है। उनकी सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
  106. प्रश्न- विद्या प्रशंसा सम्बन्धी नीतिशतकम् श्लोकों का उदाहरण देते हुए विद्या के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
  107. प्रश्न- भर्तृहरि की काव्य रचना का प्रयोजन की विवेचना कीजिए।
  108. प्रश्न- भर्तृहरि के काव्य सौष्ठव पर एक निबन्ध लिखिए।
  109. प्रश्न- 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' का विग्रह कर अर्थ बतलाइये।
  110. प्रश्न- 'संज्ञा प्रकरण किसे कहते हैं?
  111. प्रश्न- माहेश्वर सूत्र या अक्षरसाम्नाय लिखिये।
  112. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए - इति माहेश्वराणि सूत्राणि, इत्संज्ञा, ऋरषाणां मूर्धा, हलन्त्यम् ,अदर्शनं लोपः आदि
  113. प्रश्न- सन्धि किसे कहते हैं?
  114. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- हल सन्धि किसे कहते हैं?
  116. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  117. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।

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